Wednesday, 23 November 2011

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श्रीमदाद्यशंकराचार्यकृतं श्रीहनुमत्पञ्रत्‍‌नस्तोत्रम्
वीताखिलविषयेच्छं जातानन्दाश्रुपुलकमत्यच्छम्।
सीतापतिदूताद्यं वातात्मजमद्य भावये हृद्यम्॥
तरुणारुणमुखकमलं करुणारसपूरपूरितापाङ्गम्।
संजीवनमाशासे मञ्जुलमहिमानमञ्जनाभाग्यम्॥
शम्बरवैरिशरातिगमम्बुजदलविपुललोचनोदारम्।
कम्बुगलमनिलदिष्टं विम्बज्वलितोष्ठमेकमवलम्बे॥
दूरीकृतसीतार्ति: प्रकटीकृतरामवैभवस्फूर्ति:।
दारितदशमुखकीर्ति: पुरतो मम भातु हनुमतो मूर्ति:॥
वानरनिकराध्यक्षं दानवकुलकुमुदरविकरसदृक्षम्।
दीनजनावनदीक्षं पावनतप:पाकपुञ्जमद्राक्षम्॥
एतत् पवनसुतस्य स्तोत्रं य: पठति पञ्चरत्‍‌नाख्यम्। चिरमिह निखिलान् भोगान् भुक्त्वा श्रीरामभक्तिभाग् भवति॥ अर्थ :- जिनके हृदय से समस्त विषयों की इच्छा दूर हो गयी है, (श्रीराम के प्रेम में विभोर हो जाने के कारण) जिनके नेत्रों में आनन्द के आँसू और शरीर में रोमाञ्च हो रहे हैं, जो अत्यन्त निर्मल हैं, सीतापति श्रीरामचन्द्रजी के प्रधान दूत हैं, मेरे हृदय को प्रिय लगनेवाले उन पवनकुमार हनुमानजी का मैं ध्यान करता हूँ। बाल रवि के समान जिनका मुखकमल लाल है, करुणारस के समूह से जिनके लोचन-कोर भरे हुए हैं, जिनकी महिमा मनोहारिणी है, जो अञ्जना के सौभाग्य हैं, जीवनदान देनेवाले उन हनुमानजी से मुझे बडी आशा है। जो कामदेव के बाणों जीत चुके हैं, जिनके कमलपत्र के समान विशाल एवं उदार लोचन हैं, जिनका शङ्ख के समान कण्ठ और बिम्बफल के समान अरुण ओष्ठ हैं, जो पवन के सौभाग्य हैं, एकमात्र उन हनुमानजी की ही मैं शरण लेता हूँ। जिन्होंने सीताजी का कष्ट दूर किया और श्रीरामचन्द्रजी के ऐश्वर्य की स्फूर्ति को प्रकट किया, दशवदन रावण की कीर्ति को मिटानेवाली वह हनुमानजी की मूर्ति मेरे सामने प्रकट हो। जो वानर-सेना के अध्यक्ष हैं, दावनकुलरूपी कुमुदों के लिये सूर्य की किरणों के समान हैं, जिन्होंने दीनजनों की रक्षा की दीक्षा ले रखी है, पवनदेव की तपस्या के परिणामपुञ्ज उन हनुमानजी का मैंने दर्शन किया। पवनकुमार श्रीहुनमानजी के इस पञ्चरत्‍‌न नामक स्तोत्र का जो पाठ करता है, वह इस लोक में चिर-काल तक समस्त भोगों को भोगकर श्रीराम-भक्ति का भागी होता है

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