लक्ष्मी
को धन का प्रतीक माना गया है. दुनिया में सभी लेन-देन धन यानी मुद्रा के
माध्यम से होता है. हमारी क्रय-शक्ति का आधार भी धन ही होता है.
सोना-चाँदी, हीरे-मोती भी धन ही है.ं ये सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ जुटाने
के माध्यम मात्र हैं. रोटी-कपड़ा-मकान की मूलभूत जरूरत से लेकर अन्तहीन
चाहत भी धन यानी लक्ष्मी पर टिकी होती है. सभी प्रकार के विकास के पीछे भी
धन का ही हाथ होता है. ज्ञान, चरित्र, श्रम आदि को भी धन की उपमा दी जाती
है लेकिन इनका उपयोग भी धन कमाने के लिए ही किया जाता है यानी लक्ष्मी की
लीला अपरम्पार है. धन बहुत बड़ी ताकत है, जिसे नकारा नहीं जा सकता. इस धन
को पाने के लिए आदमी क्या से क्या नहीं कर बैठता, कल्पना करना भी मुश्किल
है. कोई किसी भी धंधे में हो, वह लक्ष्मी के लिए दिन-रात नाचता ही रहता है.
पूरी दुनिया नाचघर बनी हुई है यानी लक्ष्मी सबको नचा रही है. वैसे घरवाली
को भी लक्ष्मी ही कहा जाता है.
वैसे तो ‘संतोष’ को सबसे बड़ा धन
कहा गया है लेकिन इस ‘संतोष’ का निवास मन में होता है और मन सदा असंतोषी
होता है. इसे साधने वाले तो विरले ही होते हैं. धन को धिक्कारने वालों का
यदि बारीकी से निरीक्षण किया जाए तो वे भी धन के पेड़ पर ही बैठे हुए
मिलेंगे. अपरिग्रह जीवन का सत्य नहीं बल्कि प्रवचनों की शोभा बन गया है.
जल्दी और अधिक धन की चाहना में अनैतिकता का भरपूर प्रयोग, हर किसी को
लालायित करने लगा है. पहले धर्म का डर हुआ करता था लेकिन अब कानून की लचरता
ने बचा हुआ डर भी भगा दिया है. प्रायः सभी गलत कामों के पीछे धन हड़पने की
आकांक्षा ही काम करती है. यह दीगर बात है कि संस्कारों से भीगे लोग ऐसे धन
को हजम करने की क्षमता नहीं रखते और यदि वे ऐसा करते हैं तो अपने दोगले
चरित्र के कारण अनेकानेक रोगों से ग्रसित होते हुए, अपना सुख-चैन गवां
बैठते हैं. जीवन के प्रायः सभी दुःखों की जड़ में धन की अल्पता या विपुलता
विराजित होती है.
धन की इच्छा की सार्वभौमिकता के साथ सर्वसुख की
कामना भी सार्वभौमिक है. जैसे निश्चित मात्रा में दी जाने वाली औषधि ही
आरोग्य में सहायक होती है, वैसे ही धन की उचित आपूर्ति सुख-सम्पन्नता को
बढ़ावा देती है. धन, हमारी ऊर्जा को जगाने और उसे बनाए रखने के लिए अत्यन्त
जरूरी है. छोटी से लेकर बड़ी बीमारी तक से निजात दिलाने में धन सहयोगी
होता है. जीवन के सभी कामों में पग-पग पर धन की जरूरत पड़ती है. धन का
आवागमन स्वास्थ्यवर्धक है परन्तु उसका अनुपयोगी संचय दुखदायी होता है, जैसे
पेट में ही पड़ा हुआ अन्न कब्ज के साथ कई बीमारियाँ पैदा कर देता है. धन
जब इतराने लगता है तो अहंकार को उछाल मिलती है. धन के कुओं के पनघट पर
रिश्ते-नातों का जमघट लगने लगता है. धन की सड़क पर गड्डों की भरमार होती
है, जिसमें धन के पीछे अन्धे हुए लोग गिरते रहते हैं. धन की चाहना, आदमी को
मंदिर-मस्जिद, ज्योतिष, वास्तु, तंत्र-मंत्र-यंत्र, गुरू आदि के आंगन में
नचाती रहती है. वस्तुतः मर्यादित धन ऊर्जा देता है तो उसका बेतरतीब बहाव
आत्मविश्वास छीनते हुए, परावलम्बी यानी याचक बना देता है.
श्रम
तो सभी करते हैं लेकिन लक्ष्मी की कृपा सब पर नहीं होती. जो लक्ष्मी को
नियोजित करते हुए उसे आदर-सम्मान देते हैं, वह उसीकी होती है. अच्छा
खान-पान, रहन-सहन, मान-सम्मान और शोभित जीवनशैली आदि भी धन की संतुलित
उपलब्धता पर ही निर्भर करती है. उचित ढंग से अर्जित मर्यादित लक्ष्मी का
आलिंगन जीवन को आनन्दित बनाए रखता है.
जो लोग लोभ, स्वार्थ,
जोड़-तोड़, छीना-झपटी, घूसखोरी, मिलावट, नशा-पत्ता, जुआ, धोखा-धड़ी,
चोरी-चपाटी आदि के सहारे लक्ष्मी को पाने की लालसा रखते हैं, उनको- पग-पग
नचावत लिछमी
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